20-01-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

ब्रह्मा बाप के विशेष पांच कदम

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले –

आज विश्व स्नेही बाप अपने विशेष अति स्नेही और समिप बच्चों को देख रहे है। स्नेही सभी बच्चे है लेकिन अति स्नेही वा समीप बच्चे वही है जो हर कदम में फालो करने वाले है। निराकार बाप ने साकारी बच्चों को साकार रुप में फालो करने के लिए साकार ब्रह्मा बाप को बच्चों के आगे निमित्त रखा जिस आदि आत्मा ने ड्रामा में ८४ जन्मो के आदि से अंत तक अनुभव किये, साकार रूप मैं माध्यम बन बच्चों के आगे सहज करने के तिए एग्ज़ाम्पल बने। क्योंकि शक्तिशाली एग्ज़ाम्पल को देख फालो करना सहज होता है। तो स्नेही बच्चों के लिए स्नेह की निशानी बाप ने ब्रह्मा बाप को रखा और सर्व बच्चों को यही श्रेष्ठ श्रीमत दी कि हर कदम में 'फालो फादर।' सभी अपने को फालो फादर करने वाले समीप आत्मये समझते हो? फालो करना सहज लगता या मुश्किल लगता है? ब्रह्मा बाप के विशेष कदम क्या देखे?

* सबसे पहला कदम – ‘सर्वंश त्यागी’ न सिर्फ तन से और लौकिक सम्बन्ध से लेकिन सबसे बड़ा त्याग, पहला त्याग मन-बुद्धि से समर्पण । अर्थात् मन-बुद्धि में हर समय बाप और श्रीमत की हर कर्म मैं स्मृति रही। सदा स्वयं को निमित्त समझ हर कर्म में न्यारे और प्यारे रहे। देह के सम्बन्ध से, मैं-पन का त्याग। जब मन-बुद्धि की बाप के आगे समर्पणता हो जाती है। तो देह के सम्बन्ध स्वत: ही त्याग हो जाते है। तो कदम - ' सर्वंश त्यागी।'

* दूसरा कदम – सदा आज्ञाकारी रहे। हर समय एक बात में - चाहे स्व पुरुषार्थ में, चाहे यज्ञ-पालना में निमित्त बने। क्योंकि स्व ही ब्रह्मा विशेष आत्मा है जिसका ड्रामा में पार्ट नूंधा हुआ है। एक ही आत्मा – माता भी है, पिता भी है। यज्ञ-पालना के निमित्त होते हुए भी सदा आज्ञाकारी रहे। स्थापना का कार्य विशाल होते हुए भी किसी भी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। हर समय 'जी हाज़िर' का प्रत्यक्ष स्वरूप सहज रूप में देखा।

* तीसरा कदम - हर संकल्प में भी वफादार। जैसे पवित्रता नारी एक पति के बिना और किसी को स्वप्न में भी याद नहीं कर सकती, ऐसे हर समय 'एक बाप दूसरा न कोई' - यह वफादारी का प्रत्यक्ष स्वरूप देखा। विशाल नई स्थापना की जिम्मेवारी के निमित्त होतें भी वफादारी के बल से, एक बल एक भरोसे के प्रत्यक्ष कर्म में हर परिस्थिति को सहज पार किया और कराया।

* चौथा कदम - विश्व सेवाधारी। सेवा की विशेषता - एक तरफ अति निर्मान-वर्ल्ड सर्वेंट; दूसरे तरफ ज्ञान की अथार्टी। जितना ही निर्मान उतना ही बेपरवाह बादशाह। सत्यता की निर्भयता - यही सेवा की विशेषता है। कितना भी सम्बंधिया ने, राजनेताओ ने, धर्म-नेताओ ने नये ज्ञान के कारण ऑपोजीशन किया लेकिन सत्यता और निर्भयता की पोजीशन से ज़रा भी हिला न सके। इसको कहते है निर्मानता और अथॉर्टी का बैलेस। इसकी रिजल्ट आप सभी देख रहे हो। गाली देने वाले भी मन से आगे झुक रहे है। सेवा की सफलता का विशेष आधार निर्मान-भाव, निमित्त-भाव, बेहद का भाव। इसी विधि से ही सिद्धिस्वरूप बने।

* पाँचवा कदम - कर्मबंधन मुक्त, कर्म-सम्बन्ध मुक्त। अर्थात् शरीर के बंधन से मुक्त फरिश्ता, अर्थात् कर्मातीत। सेकण्ड में नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप समीप और समान।

तो आज विशेष संक्षेप में पाँच कदम सुनाये। विस्तार तो बहुत है लेकिन सार रूप में इन पाँच कदमो के ऊपर कदम उठाने वाले को ही फालो फादर कहा जाता है । अभी अपने से पूछो - कितने कदमो में फालो किया है? समर्पित हुए हो या सर्वंश सहित समर्पित हुए हो? सर्वंश अर्थात् संकल्प, स्वभाव और संस्कार, नेचर में भी बाप समान हो। अगर अब तक भी चलते-चलते समझते हो और कहते हो- मेरा स्वभाव ऐसा है, मेरी नेचर ऐसी है वा न चाहते भी संकल्प चल जाते है, बोत निकल पड़ते है - तो इसको सर्वंश त्यागी नहीं कहेंगे। अपने को समर्पित कहलाते हो लेकिन सर्वंश समर्पण - इसमें मेरा-तेरा हो जाता है। जो बाप का स्वभाव, स्व का भाव अर्थात् आत्मिक भाव। संस्कार सदा बाप समान स्नेह, रहम, उदारदिल का, जिसको बड़ी दिल कहते हो। छोटी दिल अर्थात् हद का अपनापन देखना - चाहे अपने प्रति, चाहे अपने सेवा-स्थानो के प्रति, अपने सेवा के साथियो के प्रति। और बड़ी दिल - सर्व अपनापन अमुभव हो। बड़ी दिल मैं सदा हर प्रकार के कार्य- चाहे तन के, चाहे मन, चाहे धन के, चाहे समन्ध में सफलता की बरकत होती है। बरकत अर्थात् ज्यादा फायदा होता है। और छोटी दिल वाले को मेहनत ज्यादा, सफलता कम होती है। पहले भी सुनाया था कि छोटी दिल वालों के भण्डारे और भण्डारा - सदा बरकत की नहीं होती। सेवा-साथी दिलासे बहुत देंगे - आप ये करो हम करेंगे लेकिन समय सरकमस्टांस सुनाने शुरू कर देंगे। इसको कहते है बड़ी दिल तो बड़ा साहेब राजी। राजयुक्त पर साहेब सदा राजी रहता है। टीचर्स सभी बड़ी दिल वाली हो ना! बेहद के बड़े-ते-बडे कार्य अर्थ ही निमित्त हो। यह तो नहीं कहने हो ना - हम फलाने एरिया के कल्याणकारी है या फलाने देश के कल्याणकारी है? विश्व-कल्याणकारी हो ना। इतने बड़े कार्य के लिए दिल भी बड़ी चाहिए ना? बड़ी अर्थात् बेहद। वा टीचर्स कहेगी कि हमको तो हद बनाकर दी गई है? हद भी क्या बनाई गई है, कारण? छोटी दिल। कितना भी एरिया बनाकर दे लेकिन आप सदा बेहद का भाव रखो, दिल में हद नहीं रखो। स्थान की हद का प्रभाव दिल पर नहीं होना चाहिए। अगर दिल में हद का प्रभाव है तो बेहद का बाप हद की दिल में नहीं रह सकता। बड़ा बाबा है तो दिल बड़ी चाहिए ना। कभी ब्रह्मा बाप ने मधुबन में रहते यह संकत्य किया कि मेरा तो सिर्फ मधुबन है, बाकी पंजाब, यु.पी., कर्नाटक आदि बच्चों का है? ब्रह्मा बाप से तो सबको प्यार है ना। प्यार का अर्थ हें - बाप को फालो करना।

सभी टीचर्स फालो फादर करने वाली हो या मेरा सेंटर, मेरे जिज्ञासू, मेरी मंडोगरी और स्टूडैण्ट भी समझते - मेरी टीचर है? फालो फादर अर्थात् मेरे को तेरे में समाना, हद को बेहद में समाना। अभी इस कदम-पर-कदम रखने की आवश्यकता है। सबके संकल्प, बोल, सेवा की विधि बेहद की अनुभव हो। कहते हो ना - अभी क्या करना है इस वर्ष। तो स्व-परिवर्तन के लिए हर एक को सर्व वंश सहित समाप्त करो। जिसको भी देखो वा जो भी आपको देखे - बेहद के बादशाह का नशा अनुभव हो। हद की दिल वाले बेहद के बादशाह बन नहीं सकते। ऐसे नहीं समझना कि जितने सेंटर्स खोलते वा जितनी ज्यादा सेवा करते हो इतना बड़ा राजा बनेंगे। इस पर स्वर्ग की प्राइज नहीं मिलनी है। सेवा भी हो, सेंटर्स भी हौ लेकिन हद का नाम-निशान न हो। उसको नम्बरवार विश्व के राज्य का तख्त प्राप्त होगा। इसलिए अभी-अभी थोड़े समय के लिए अपनी दिल खुश करके नहीं बैठना। बेहद की खुशबू वाला बाप समान और समीप अब भी है और २१ जन्म भी ब्रह्मा बाप के समीप होगा। तो ऐसी प्राइज चाहिए या अभी की? बहुत सेंटर्स है, बहुत जिज्ञासु है... इस बहुत-बहुत में नहीं जाना। बड़ी दिल को अपनाओ। सुना, इस वर्ष क्या करना है? इस वर्ष स्वयं में भी किसके हद का संस्कार उत्पन्न न हो। हिम्मत है ना?  एक-दो  को फालो नहीं करना, बाप को फालो करना।

दूसरी बात - बापदादा ने वाणी के ऊपर भी विशेष अटेंशन दिलाया था। इस वर्ष अपने बोल के ऊपर विशेष डबल अटेंशन। सभी को बोल के लिए डायरेक्शन भेजा गया है। इस पर प्राइज मिलनी है। सच्चाई-सफाई से अपना चार्ट स्वयं ही रखना। सच्चे बाप के बच्चे हो ना। बापदादा सभी को डायरेक्शन देते है - जहाँ देखते हो सेवा स्थिति को डगमग करती है, उसे सेवा में कोई सफलता मिल नहीं सकती। सेवा भले कम करो लेकिन स्थिति को कम नहीं करो। जो सेवा स्थिति को नीचे ले आती है उसको सेवा कैसे कहेंगे। इसलिए बापदादा सभी को फिर से यही कहेंगे कि सदा स्व-स्थिति और सेवा अर्थात् स्व-सेवा और औरों की सेवा साथ-साथ सदा करो। स्व-सेवा को छोड़ पर-सेवा करना - इससे सफलता नहीं प्राण होती। हिम्मत रखो। स्व-सेवा और पर-सेवा की। सर्वशक्तिवान बाप मददगार है। इसलिए हिम्मत से दोनों का बैलेस रख आगे बढ़ो। कमज़ोर नहीं बनो। अनेक बार के निमित्त बने हुए विजयी आत्मा हो। ऐसी विजयी आत्माओं के लिए कोई मुश्किल नहीं, कोई मेहनत नहीं। अटेंशन और अभ्यास - यह भी सहज और स्वत: अनुभव करेंगे। अटेंशन का भी टेंशन नहीं रखना। कोई-कोई अटेंशन को  टेंशन मैं बदल लेते है। ब्राह्मण आत्माओं के निजी संस्कार 'अटेंशन' और 'अभ्यास' है। अच्छा!

बाकी रही विश्व-कल्याण की सेवा की बात तीन-चार वर्ष से चारों ओर के

देश-विदेश में बड़े-बड़े प्रोजैक्ट किये है - पीस का भी किया, ग्लोबल का भी किया। बड़े प्रोजैक्ट करने से आजकल की दुनिया के बड़े लोगों तक आवाज़ पहुंची भी है और पहुंचती भी रहेगी। देश-विदेश की सेवा की रिजल्ट अच्छी हैं - सम्पर्क-सम्बन्ध, सहयोग अनेक आत्माओं से हुआ है। लेकिन एक बड़े प्रोजैक्ट के पीछे दूसरा, फिर तीसरा प्रोजेक्ट करने से जो नया प्रोजेक्ट शुरू करते हो उस तरफ़ विशेष अटेन्शन, समय, एनर्जी देनी पड़ती है और देनी भी चाहिए। लेकिन जो आत्माएं सम्पर्क वाली बनी वा संदेश सुनने वाली बनी वा सहयोगी बनीं, उन आत्माओं को और आगे समीप लाने में बिजी होने के कारण अंतर पड़ जाता है। इसलिए इस वर्ष हर एक सेवाकेन्द्र जितने भी संदेश वा संपर्क वाले हैं, उन्हों को

निमंत्रण देकर यथाशक्ति स्नेह-मिलन करो। चाहे वर्गीकरण के हिसाब से करो वा स्नेह-मिलन करो लेकिन उन आत्माओं की तरफ़ विशेष अटेन्शन दो। पर्सनल मिलो। सिर्फ पोस्ट भेज देते हो तो उससे भी रिजल्ट कम निकलती है। अपने ही आने वाले स्टूडेंट्स के ग्रुप बनाओ और उन्हों को  थोड़े लोगों के पर्सनल समीप आने के निमित्त बनाओं। तो सब स्टूडेंट्स भी बिजी होगे और सेवा की सिलेक्शन भी हो जायेगी, जिसको आप लोग कहते हो- पीठ नहीं होतीं। ऐसी आत्माओं को भी कोई नई बात सुनाने की चाहिए। अभी तक तो बेटर बर्ल्ड क्या होगीं। उसके इकट्ठे किये हैं। अब फिर उन्हो को अपनी तरफ अटेंशन दिलाओ। उसका विशेष टॉपिक रखो 'सेल्फ प्रोग्रेस' और 'सेल्फ प्रोग्रेस का आधार'। यह नई विषय रखो। यह स्व-प्रोग्रेस के लिए स्प्रिटुअल  बजट बनाओ और बजट में सदैव बचत की स्कीम बनाई जानी है। तो स्प्रिटुअल बचत का खाता क्या है! समय, बोल, संकल्प और एनर्जी को 'वेस्ट से बैस्ट में चेंज' करना होगा। सभी को अब स्व तरफ अटेंशन दिलाओ। बच्चों ने टापिक निकाली थी - फॉरसेल्फ ट्रांसफरमेशन। लेकिन इस वर्ष हर एक सेवाकेद्र को फ्रीडम है - जितनी जो कर सके अपनी स्व-उनति के साथ-साथ पढ़ाई स्वयं के बचत की बजट बनायें और साथ में सेवा में औरों को इस बात का अनुभव कराये। अगर कोई बड़े प्रोग्राम्स रख सकते है तो रखे अगर नहीं कर सकते तो भले छोटे प्रोग्राम्स करे। लेकिन विशेष अटेंशन स्व-सेवा और पर-सेवा का बैलेन्स वा विश्व सेवा का बैलेन्स हो। ऐसे नहीं कि सेवा में ऐसे बिज़ी हो जाओ जो स्व-उनति का समय नहीं मिले। तो यह स्वतंत्र वर्ष है सेवा के लिए। जितना चाहो उतना करो। दोनों प्लैन स्मृति में रख और भी एडीशन कर सकते  हो और प्लेन में रत्न जड़ सकते हो। बाप सदैव बच्चा को आगे रखता है। अच्छा!

यह सीज़न की लास्ट नहीं है लेकिन फास्ट जाने का दिन है। लास्ट के साथ सदैव फर्स्ट जुड़ा होता है। तो फास्ट सो फर्स्ट जाने का दिन है। महारथी सेवाधारी बच्चे भी आज बहुत आये है। निमित्त बने हुए बड़े बच्चों को देख बापदादा खुश होते है। बापदादा जानते है - दोनों ही कांफ्रेंस आवाज़ बुलंद करने वाली रही। (जगदीश भाई एथेनस तथा मास्को से कांफ्रेंस अटेंड करके वापस आये है) 'हिम्मते बच्चे, मददे बाप' का प्रत्यक्ष स्वरूप बच्चों ने दिखाया। इसलिए जो भी सेवा के लिए निमित्त बने उन सबको बापदादा मुबारक दे रहे है। अच्छा!

चारो ओर के सर्व फालो फादर करने वाली श्रेष्ठ आत्माएं, सदा डबल सेवा का बैलेस रखने वाले बाप की ब्लैसिग के अधिकारी आत्माओं को, सदा बेहद के बादशाह - ऐसे राजयोगी, सहजयोगी, स्वत: योगी, सदा अनेक बार के विजय के निश्चय और नशे में रहने वाले अति सहयोगी स्नेही बच्चों को बापदादा का याद- प्यार और नमस्ते।

ज़ोन वाइज़ ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

१ 'मैं हर कल्प की पूजा आत्मा हूँ' - ऐसा अनुभव करते हो? अनेक बार पूज्य बने और फिर से पूज्य बन रहे है! पूज्य आत्माएं क्यों बनते हो? क्योंकि जो स्वयं स्वमान में रहते हैं उनको स्वतःही औरों द्वारा मान मिलना है। स्वमान को जानते हो? कितना ऊँच स्वमान है? कितनी भी बड़े स्वमान वाले हो लेकिन वह आपके आगे कुछ भी नहीं है क्योंकि उनका स्वमान हद का है और आपका आत्मिक स्वमान है। आत्मा अविनाशी है तो स्वमान भी अविनाशी है। उनको है देह का मान। देह विनाशी है तो स्वमान भी विनाशी है। कभी कोई प्रेजीडेंट बना या मिनिस्टर बना लेकिन शरीर जायेंगा तो स्वमान भी जायेंगा। फिर प्रेजीडेंट होंगे क्या? और आपका स्वमान क्या है? - श्रेष्ठ आत्मा हो, पूज्य आत्मा हो। आत्मा की स्मृति में रहते हो, इसलिए अविनाशी स्वमान है। आप विनाशी स्वमान की तरफ आकर्षित नहीं हो सकते। अविनाशी स्वमान वाले पूज्य आत्मा बनते है। अभी तक अपनी पूजा देख रहे हो। जब अपने पूज्य स्वरूप को देखते हो तो स्मृति आती है ना कि यह हमारे ही रूप है। चाहे भक्तो ने अपनी-अपनी भावना से रूप दे दिया है लेकिन हो तो आप ही पूज्य आत्माये! जितना ही स्वमान उतना ही फिर निर्मान। स्वमान का अभिमान नहीं है। ऐसे नहीं - हम तो ऊँच बन गये, दूसरे छोटे है या उनके प्रति घृणा भाव हो, यह नहीं होना चाहिए। कैसी भी आत्माये हो लेकिन रहम की दृष्टि से देखेंगे, अभिमान की दृष्टि से नहीं। न अभिमान, न अपमान। अभी ब्राह्मण-जीवन की यह चाल नहीं है। तो दृष्टि बदल गई है ना। अब जीवन ही बदल गई तो दृष्टि तो स्वत: ही बदल गई ना! सृष्टि भी बदल गई। अभी आपकी सृष्टि कौनसी है! आपकी सृष्टि वा संसार बाप ही है। बाप में परिवार तो आ ही जाता है। अभी किसीको को भी देखेंगे तो आत्मिक दृष्टि से, ऊँची दृष्टि से देखेंगे। अभी शरीर की तरफ दृष्टि जा नहीं सकनी। क्योंकि दृष्टि वा नयनो में सदा बाप समाया हुआ है। जिसके नयनो में बाप है वह देह के भान में कैसे जायेंगे? बाप समाया हुआ है या समा रहा है? बाप समाया है तो और कोई समा नहीं सकता। वैसे भी देखो तो ऑख की कमाल है ही बिन्दु से। यह सारा देखना-करना कौन करता है? शरीर के हिसाब से भी बिंदी ही है ना। छोटी-सी बिंदी कमाल करती है। तो देह के नाते से भी छोटी-सी बिंदी कमाल करती है और आत्मिक नाते से बाप बिंदु समाया हुआ है, इसलिए और कोई समा नहीं सकता। ऐसे समझते हो? जब पूज्य आत्माये बन गये तो पूज्य आत्माओं के नयन सदा निर्मल दिखाते है। अभियान या अपमान के नयन नहीं दिखाते। कोई भी देवी वा देवता के नयन निर्मल वा रूहानी होंगे। तो यह नयन किसके है? कभी किसी के प्रति कोई संकल्प भी आये तो याद रखो कि मैं कौन हूँ? मेरे जड़-चित्र भी रूहानी नैनधारी है तो मैं तो चैतन्य कैसा हूँ? लोग अभी तक भी आपकी महिमा में कहते है - सर्वगुण संपन्न, समूर्ण निर्विकारी। तो आप कौन हो? सम्पूर्ण निर्विकारी हो ना! अंशमात्र भी कोई विकार न हो। सदैव यह स्मृति रखो कि मेरे भक्त मुझे इस रूप से याद कर रहे है। चेक करो- जड़ चित्र और चैतन्य-चरित्र में अंतर तो नहीं है? चरित्र से चित्र बने है। संगम पर प्रैक्टिकल चरित्र दिखाया है तब चित्र बने है। अच्छा। 

२ सदा अमृतवेले से लेकर रात तक यह कार्य चाहे लौकिक, चाहे अलौकिक.. सब कार्य सहज और सफल हो, उसकी सहज विधि क्या है? कोई भी कर्म करते हो तो पहले 'त्रिकालदर्शी' बन फिर कोई कर्म करो। क्योंकि त्रिकालदर्शी बनकर काम करने से, तीनों कालो का ज्ञान बुद्धि मैं रहने से कोई कर्म नीचे-ऊपर नहीं होगा। वैसे भी ज्ञानी का अर्थ ही है जो आगे-पीछे सोच-समझ कर कर्म करे, कर्म के पहले उसकी रिजल्ट को जाने। ऐसे नहीं - जल्दी-जल्दी जो आया वह कर लिया। उसमें सफलता नहीं होती। पहले परिणाम को सोचो फिर कर्म करो तो सदा श्रेष्ठ परिणाम निकलेगा। श्रेष्ठ परिणाम को ही सफलता कहा जाता है। ऐसे नहीं - बहुत बिज़ी था, जो काम सामने आया वह करना शुरू कर दिया। नहीं। जैसे बापदादा ने श्रीमत दी है कि भोजन करने के पहले  भोग लगाओ, पीछे खाओ। भोग लगाने का कर्म अगर नहीं करते और जल्दी-जल्दी में खा लिया तो परिणाम क्या होगा? याद भूलने से जो ब्रह्मा-भोजन का, अन्न का मन पर प्रभाव पड़ना चाहिए वह नहीं होगा। एक तो प्रभाव नहीं पड़ेगा और दूसरा बाप की श्रीमत न मानने का नुकसान होगा। क्योंकि अवज्ञा हो गई ना। उसका भी उल्टा फल मिलना है। अगर कर्म करने से यह आदत पड़ जाए कि पहले तीनो काल सोचना है, त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित होकर, फिर कर्म करो तो कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं होगा, साधारण नहीं होगा। लौकिक मैं भी सफलता प्राप्त करेंगे और अलौकिक मैं सफलता-ही-सफलता है। तो त्रिकालदर्शी के स्मृति की स्थिति रूपी तख्त पर बैठो, फिर निर्णय करो कि क्या करना है, क्या नहीं करना है, कैसे करना है! फिर कोई भी कर्म फल नहीं देवे - यह हो नहीं सकता। बीज अगर शक्तिशाली होगा तो फल अवश्य मिलेगा। लेकिन जल्दी-जल्दी में कमज़ोर कर्म करते हो तो फल भी थोड़ा-बहुत मिल जाता है, जितना मिलना चाहिए उतना नहीं मिलता, जिनना चाहते हो उतना नहीं मिलता। तो हर कर्म की सफलता का आधार है त्रिकालदर्शी स्थिति, ऐसे नहीं - सिर्फ याद रखो कि मास्टर त्रिकालदर्शी हूँ?. और कर्म करने के समय भूल जाओ। इसे यूज़ करना। इस अभ्यास में कभी भी अलबेले नहीं बनो। यह अभ्यास करो। क्योंकि २१ जन्म के लिए जमा करना है। एक जन्म में २१ जन्म का जमा करना है तो कितना अटेंशन देना पड़ेगा! टेंशन नहीं लेर्किन सदा अटेंशन रखो। अलबेलेपन का अब परिवर्तन करो। दाता दै रहा है तो पुरा लो! देने वाला दे और लेने वाला थोड़ा लेकर खुश हो जाए तो रिजल्ट क्या होगी? फिर नहीं मिलेगा। इसलिए पूरा अटेंशन दो। अच्छा।